आज जीवन के इस पक्ष में यदि कोई विद्वान् अपनी बात रखना चाहता है तो हमारा वर्तमान उसे अश्लील कहकर दुत्कारने लगता है। यह विचारणीय है कि प्रकृति के इतने गंभीर विषय को हम क्यों एक सिरे से नकारने लगते हैं जबकि ब्रह्माण्ड में सृजन का मूल साधन यही क्रिया है। ऐसे में जब हिंदी साहित्य के एक मूर्धन्य लेखक आचार्य चतुरसेन अपने परिश्रम से एक ऐसी किताब पाठकों के सामने रखने का प्रयास करते हैं जिससे मानव कल्याण की सिद्धि हो तो उसका सम्मान होना ही चाहिए। हमें उम्मीद है कि पाठकों के लिए यह पुस्तक लाभदायक सिद्ध होगी।
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