सहजता ही दयानंद पांडेय के उपन्यासों की शक्ति है। उन के उपन्यासों में व्यौरे बहुत मिलते हैं। ऐसा लगता है, जीवन को यथासंभव विस्तार में देखने की एक रचनात्मक जिद भी उन के उपन्यासकार का स्वभाव है। इस शक्ति और स्वभाव का परिचय देते उन के यह तीन उपन्यास इस में पढ़े जा सकते हैं। इन तीनों उपन्यासों में समकालीन समाज के कुछ ऐसे बिंब हैं जिनमें 'अप्रत्याशित जीवन' की अनेक छवियां झिलमिलाती हैं। 'स्त्री' दयानंद पांडेय के उपन्यासोंके मुख्य सरोकारों में से एक है। मन्ना जल्दी आना, मुजरिम चांद और मैत्रेयी की मुश्किलें और इन के चरित्र जीवन का अनुसरण करते हैं। किसी घोषित आंदोलन का नहीं। हो सकता है किसी पाठक-आलोचक को इन कहानियों और चरित्रों में बौद्धिक मारकाट या सैद्धांतिक संघर्ष ऊपरी सतह पर तैरता न दिखे, फिर भी शीर्षक लगा कर निष्कर्ष देने के स्थान पर ये रचनाएं जीवन को समस्त विचलनों के साथ सामने लाती हैं। मन्ना जल्दी आना भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान के त्रिकोण में छटपटाते जाने कितने हिंदुओं-मुसलमानों के दुखों का बयान है। अब्दुल मन्नान और उन के परिवार की कहानी में जाति, धर्म, सियासत के कई समकालीन धब्बे भी दिखते हैं। सहज विवेक से दयानंद पांडेय
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